प्रश्न: प्राचीन भारत में साहित्यिक तथा अभिलेखिक स्रोतों के आधार पर भूमि स्वामित्व की समीक्षा कीजिए।
Evaluate the ownership of land in ancient India on the basis of literary and epigraphic sources. [UPSC CSE 2013]
उत्तर: प्राचीन भारत में भूमि स्वामित्व समाज की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक संरचना को प्रभावित करता था। साहित्यिक तथा अभिलेखिक स्रोतों के आधार पर इसकी समीक्षा करने पर विभिन्न कालों में इसके स्वरूप और महत्व को समझा जा सकता है।
(i) वेदों में भूमि का उल्लेख प्रमुख रूप से आर्थिक और धार्मिक संदर्भ में किया गया है। वेदों में भूमि को माता के समान माना गया और इसके स्वामित्व से जुड़े दान और व्रतों का महत्व भी स्पष्ट रूप से देखा जाता है।
(ii) महाभारत में भूमि के स्वामित्व और उसके अधिकारों पर विस्तृत चर्चा की गई है। इसमें भूमि विवादों और राजाओं के बीच भूमि के आवंटन की चर्चा की गई है। महाभारत में यह दिखाया गया है कि भूमि स्वामित्व को लेकर संघर्ष और विवाद आम थे।
(iii) अभिलेखिक स्रोतों से भूमि स्वामित्व की स्पष्ट जानकारी मिलती है। मौर्य काल और गुप्त काल के शिलालेखों में भूमि कर वसूली, भूमि दान और भूमि के स्वामित्व के अधिकारों का उल्लेख मिलता है। इन शिलालेखों से यह स्पष्ट होता है कि भूमि पर शासक का नियंत्रण था।
(iv) गुप्त काल में भूमि स्वामित्व की स्थिति अधिक व्यवस्थित और औपचारिक हो गई थी। गुप्त शासकों के शिलालेखों में भूमि के दान और स्वामित्व संबंधी नियमों का विस्तृत उल्लेख मिलता है। यह दिखाता है कि भूमि स्वामित्व की संरचना में परिवर्तन आया।
(v) भूमि स्वामित्व से संबंधित बहुत से विवादों का समाधान शासकों द्वारा किया जाता था। गुप्त काल में भूमि का नियंत्रण सामंतों और धार्मिक संस्थाओं के पास था, जिससे समाज में सत्ता का संतुलन बना रहता था।
(vi) भारत के प्राचीन समाज में भूमि का दान सामाजिक प्रतिष्ठा और पुण्य का प्रतीक था। पुराणों और शास्त्रों में भूमि दान का महत्व अत्यधिक बताया गया है। यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि भूमि का स्वामित्व धार्मिक कर्तव्यों से जुड़ा हुआ था।
(vii) मौर्य काल के अभिलेखों में भूमि से संबंधित प्रशासनिक पहलुओं का उल्लेख किया गया है। सम्राट अशोक के शिलालेखों में भूमि पर करों की जानकारी मिलती है, जो यह दर्शाता है कि भूमि राज्य के नियंत्रण में थी।
(viii) साहित्यिक और अभिलेखिक स्रोतों से यह स्पष्ट होता है कि भूमि स्वामित्व का सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक महत्व था। भूमि का स्वामित्व केवल आर्थिक संसाधन नहीं था, बल्कि यह समाज के शक्ति संतुलन को भी दर्शाता था।
निष्कर्षतः, प्राचीन भारत में भूमि स्वामित्व का स्वरूप समय के साथ विकसित हुआ। साहित्यिक और अभिलेखिक स्रोतों से प्राप्त जानकारी यह दर्शाती है कि भूमि स्वामित्व सामाजिक और धार्मिक दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वपूर्ण था और इसने भारतीय समाज की संरचना को प्रभावित किया।