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प्रश्न: भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ अपनी प्राचीन उत्पत्ति से लेकर अपनी वर्तमान रूपों और अभिव्यक्तियों तक किस प्रकार विकसित हुए हैं?  

Que. How have Indian classical dance forms evolved from their ancient origins to their present-day styles and expressions?  

दृष्टिकोण:

(i) भारतीय शास्त्रीय नृत्य को परिभाषित करते हुए उत्तर आरंभ कीजिए। 

(ii) विभिन्न शास्त्रीय नृत्य शैलियों के विकास और उनकी विशेषताओं पर चर्चा कीजिए।

(iii) तदनुसार निष्कर्ष प्रस्तुत कीजिए।

परिचय:

संगीत नाटक अकादमी के अनुसार, भारतीय शास्त्रीय नृत्य की आठ शैलियां हैं – भरतनाट्यम, कथक, कथकली, कुचिपुड़ी, मणिपुरी, मोहिनीअट्टम, ओडिसी, सत्त्रिया।

भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैली मंदिरों एवं अनुष्ठानों में अपनी पवित्र उत्पत्ति से लेकर समकालीन मंचों तक विकसित हुई है, जिसमें प्राचीन परंपराओं को आधुनिक व्याख्याओं के साथ मिश्रित किया गया है। नाट्यशास्त्र जैसे ग्रंथों में निहित, इन नृत्यों ने अपने आध्यात्मिक एवं अभिव्यंजक सार को बनाए रखते हुए बदलते सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संदर्भों के अनुकूल खुद को ढाल लिया है।

प्राचीन उत्पत्ति एवं मध्यकालीन विकास:

(i) नाव्यशास्त्रः भरत मुनि का नाट्यशास्त्र नृत्य पर उपलब्ध प्राचीनतम ग्रंथ है। यह नाटक, नृत्य और संगीत कला का स्रोत ग्रंथ है। ऐसा माना जाता है कि इसकी रचना दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से दूसरी शताब्दी ईस्वी के बीच हुई थी। यह नाट्य (नाटक) कला का विवरण प्रस्तुत करता है तथा इसमें शास्त्रीय नृत्य के सभी पहलुओं को शामिल किया गया है। साथ ही, इसमें ऐसे सिद्धांत निर्धारित किए गए हैं, जिनका अनुपालन आज भी किया जाता है।

(ii) मंदिर परंपराएँ: शास्त्रीय नृत्य शुरू में मंदिर अनुष्ठानों के अभिन्न अंग के रूप में उभरे, जिन्हें देवताओं को अर्पित किया जाता था। ये भक्ति प्रदर्शन, अक्सर मंदिर नर्तकियों (देवदासियों) द्वारा किए जाते थे, समय के साथ अत्यधिक शैलीगत नृत्य रूपों में विकसित होते हुए धार्मिक महत्व बनाए रखते थे, जिससे आध्यात्मिक परंपराओं को संरक्षित किया जाता था।

उदाहरण के लिए: भरतनाट्यम नृत्य का विकास तमिलनाडु के मंदिरों में देवदासियों द्वारा किए जाने वाले नृत्य से हुआ है। इसी प्रकार, ओडिसी नृत्य की उत्पत्ति ओडिशा के जगन्नाथ मंदिर में देवदासियों द्वारा किए जाने वाले नृत्य से हुई है।

(iii) शाही संरक्षण: प्राचीन और मध्यकालीन काल में भारतीय राजाओं के संरक्षण में शास्त्रीय नृत्यों का विकास हुआ। इन शासकों ने नर्तकों, संगीतकारों और कलाकारों का समर्थन किया, जिससे विभिन्न नृत्य रूपों का अस्तित्व और विकास सुनिश्चित हुआ, जो दरबारी मनोरंजन और सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न अंग बन गए। 

उदाहरण के लिए: 19वीं सदी के दौरान अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह ने कथक नृत्य को संरक्षण प्रदान किया। यह कथक नृत्य का स्वर्ण युग माना जाता है।

(iv) फ़ारसी प्रभाव: मुगलों के आगमन के साथ, फ़ारसी प्रभावों ने शास्त्रीय भारतीय नृत्य शैलियों में उल्लेखनीय परिवर्तन किए। मुगल दरबार के संरक्षण ने नए सौंदर्यशास्त्र की शुरुआत की, जिसमें फ़ारसी और भारतीय परंपराओं का सम्मिश्रण हुआ, विशेष रूप से कथक में, जो इन संस्कृतियों के मिश्रण के रूप में विकसित हुआ। 

उदाहरण के लिए: कथक, जो मुख्यतः एक मंदिर नृत्य की शैली थी, को मुगल दरबारों में स्थान प्राप्त हुआ तथा इस पर फारसी नृत्य शैली का पर्याप्त प्रभाव पड़ा।

(v) सांस्कृतिक और धार्मिक प्रभावः मणिपुरी नृत्य की उत्पत्ति प्राचीन काल के धार्मिक अनुष्ठानों और पारंपरिक त्योहारों से हुई है। इस नृत्य का संबंध शिव और पार्वती के नृत्य से है। 15वीं शताब्दी में वैष्णववाद के आगमन के उपरांत इसमें धीरे-धीरे राधा और कृष्ण के जीवन के प्रकरणों पर आधारित नई रचनाओं को शामिल कर लिया गया।

आधुनिक विकासः

(i) अवधारणा में परिवर्तनः कई कलाकारों जैसे रुक्मिणी देवी अरुंडेल द्वारा भरतनाट्यम को पुनर्जीवित किया गया है। उन्होंने इस नृत्य शैली से जुड़े प्राचीन देवदासी कलंक को दूर किया तथा इसमें सामाजिक प्रासंगिकता के गुणों का संचार किया।

(ii) संस्थानीकरण और औपचारीकरणः स्वतंत्रता के उपरांत शास्त्रीय नृत्य के प्रोत्साहन, प्रशिक्षण और संरक्षण हेतु विभिन्न संस्थानों की स्थापना की गई थी। 

उदाहरण के लिए, संगीत नाटक अकादमी द्वारा इन नृत्य शैलियों को संरक्षित करने एवं इन्हें बढ़ावा देने, शिक्षण पद्धतियों और प्रदर्शनों का मानकीकरण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 

(iii) विभिन्न शैलियों का मिश्रण एवं नवाचारः कवि वल्लथोल के प्रयासों ने कथकली नृत्य को नवीन स्वरूप एवं प्रोत्साहन प्रदान किया है। साथ ही, इसमें वर्तमान बदलती सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप अनेक नवाचार भी किए जा रहे हैं। नृत्य की मिश्रित शैली के सृजन हेतु पारंपरिक शास्त्रीय नृत्य के प्रारूपों के साथ भी प्रयोग किए जा रहे हैं। 

निष्कर्ष:

भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैलियों में समय के साथ महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं, जो धार्मिक और अनुष्ठानिक प्रथाओं से विकसित होकर अत्यधिक शैलीबद्ध, नाटकीय कला शैलियों में बदल गई हैं। जबकि आधुनिक प्रभावों ने उनकी प्रस्तुति को आकार दिया है, ये नृत्य शैलियाँ अपने आध्यात्मिक सार, सांस्कृतिक आख्यानों और पारंपरिक तकनीकों को संरक्षित करना जारी रखती हैं, जो उनके प्राचीन मूल से गहरा संबंध बनाए रखती हैं।

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